Sunday 6 October 2019

पत्नी से डरते हैं तो फोटो ले सकते हैं

इस तस्वीर को गौर से देखिए। आपको क्या दिख रहा है? बहुत सारे कपड़े दिख रहे हैं न
। वो भी बच्चों के कपड़े हैं। अरे! नहीं जनाब। जो मैं आपको दिखाना चाह रहा हूं उसे देखिए। इधर-उधर मत झांकिए। अब शायद आपकी नजर उस संदेश तक पहुंच गई होगी, जिसे मैं आपको दिखाना चाह रहा हूं। अब उस मैसेज को धीरे-धीरे पढ़िए। सब माजरा समझ में आ जाएगा। क्या लिख है उसमें। आप भी पढ़िए...'पत्नी से डर लगता है तो फोटो ले सकते हैं'।

कपड़े की दुकान में लगा यह संदेश बहुत कुछ कह रहा है। इसके मायने क्या है? खैर जो भी हो, लेकिन इसमें सच्चाई कितनी है। इसका आकलन करना होगा। यह तस्वीर राजधानी दिल्ली के पालिका बाजार की है। यहां आपको जरूरत की हर चीजें मिल जाएंगी। अगर मोलभाव करने में माहिर हैं तो सस्ते दामों पर इलेक्ट्रॉनिक गैजेट से लेकर सूई तक आपको मिल जाएगी। अगर इस कला में निपुण नहीं हैं तो जेब कटते देर भी नहीं लगेगी। यहां रोजाना रेलमपेल भीड़ रहती है। यहां जाने पर हर दुकानदार आपको आवाज देकर बुलाएंगे। जाना और न जाना आपकी मर्जी है।

छुट्टी का दिन था। कुछ दोस्तों से मिलना था सो मिलने का स्थान तय हुआ कनाट प्लेस। तय समय पर पहुंचा। वर्षों से बिछड़े दोस्तों से मुलाकात हुई। खाने-पीने के साथ बहुत सारी बातें हुईं। कुछ पुरानी और कुछ नई। इस दौरान कुछ दोस्तों ने कहा कि चलो पालिका बाजार चलते हैं। बहुत हो गया। दिल्ली से जाने के बाद पहली बार यहां जा रहा हूं। अंदर हम सब घूम रहे थे और हर चीज पर बारीकी से नजर दौड़ा रहे थे। तभी एक दुकान पर सबकी नजरें टिकीं। जहां यह संदेश लिखा था 'पत्नी से डर लगता है तो फोटो ले सकते हैं'।

संदेश लिखने का दुकानदार का मकसद क्या है। क्या वाकई में लोग अपनी धर्मपत्नी से डरते हैं या फिर बहुत सारे कपड़े देखने के बाद भी खरीदने का मन न हो तो पत्नी का बहाना बनाकर दुकान से चलते बनते हैं। मुझे यही वाजिब कारण लग रहा है। क्योंकि इस स्थिति से आजिज आकर दुकानदार इसका काट निकाला होगा। काट भी ऐसा जबरदस्त कि इसे पढ़ते ही हंसी आ जाए। इसके बाद तो ग्राहक कोई बहाना भी नहीं बना पाएगा।
क्या वाकई में इस तरह के लोगा हैं, जो कपड़े तो देख लेते हैं, लेकिन जब खरीदने की बारी आती है तो कोई न कोई बहाना बनाकर वहां फुट लेते हैं। अगर उन्हें ऐसा ही करना है तो मॉल में इस तरह के कई विकल्प मौजूद हैं। ग्राहक वहां क्यों नहीं जाते हैं। मॉल में तो कपड़े खरीदने की जबरदस्ती तो नहीं रहेगी।

अंत में पत्नी को बदनाम करने की दुकानदार की शातिराना चाल तो नहीं। हो सकता है मजे लेने के लिए वो इस तरह संदेश अपनी दुकान में लगा दिया हो। या फिर शोहरत पाने के लिए वह इस तरह का तरीका अपनाया हो। अगर ऐसे किसी काम के लिए उसने ऐसा किया है तो उस दुकानदार का विरोध होना चाहिए। वो भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर? ताकि उसे भी पता चले कि उसने किस से पंग लिया!!!

Saturday 5 October 2019

इतिहास में पहली बार हीरे के अंदर मिला हीरा


प्रकृति ने कितनी अनूठी और बेशकीमती चीजें दुनिया को दी हैं। इसका एक उदाहरण साइबेरिया की एक खदान में देखने को मिला। जहां एक हीरे के अंदर एक और हीरा मिला है। इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है। हम प्रकृति के कितने ऋणी हैं। इसका अहसास करने का मौका तक नहीं मिलता है। जब फुर्सत मिले तो जरा ध्यान से इस पर सोचिएगा। कुछ तो सकारात्मक निष्कर्ष निकलेगा। 


प्रकृति ने पूरी दुनिया को अनमोल और बेशकीमती चीजों से नवाजा है, लेकिन हम हैं कि हर वक्त उसकी उपेक्षा करने पर तुले हैं। जिस जंगल ने सांसों को टूटने से रोक रखा है हम उसी का विनाश कर रहे हैं। आखिर हम कितने मुर्ख और अविवेकी हो गए हैं। स्वार्थ और आधुनिकीकरण ने हमें अंधा बना दिया है। यही वजह है हम रोजाना जंगल को साफ कर रहे हैं।

रूस की खदान कंपनी दावा किया कि हीरा 80 करोड़ साल से ज्यादा पुराना हो सकता है। मैट्रीओशका हीरे का वजन 0.62 कैरट है, जबकि इसके अंदर के पत्थर (हीरे) का वजन 0.02 कैरट है। घटती आकार की लकड़ी की गुड़िया के सेट एक दूसरे के अंदर रखा जाता है। इसे घटते हुए क्रम रखा जाता है। मैट्रीओशका डायमंड भी इसी क्रम का अनुसरण करता है। अलरोसा के 'रिसर्च एंड डेवलपमेंट जियोलॉजिकल एंटरप्राइज' के उपनिदेशक ओलेग कोवलचुक ने कहा कि जहां तक हम जानते हैं वैश्विक हीरे के खनन के इतिहास में अभी तक इस तरह का हीरा नहीं मिला है। यह वास्तव में प्रकृति की एक अनूठी रचना है। खासकर जब प्रकृति को शून्यता पसंद नहीं है।
वैज्ञानिकों ने एक्स-रे माइक्रोटोमोग्राफी के साथ स्पेक्ट्रोस्कोपी के कई अलग-अलग मेथड का उपयोग करके पत्थर की जांच की। अलरोसा के एक प्रवक्ता ने कहा कि कंपनी की योजना आगे के विश्लेषण के लिए अमेरिका के जेमोलॉजिकल इंस्टीट्यूट को मैट्रीओशका हीरा भेजने की है।

Thursday 4 January 2018

कहीं फीकी न पड़ जाए ऑस्ट्रेलिया ओपन की चमक

ऑस्ट्रेलिया ओपन के शुरू होने में अभी महज कुछ ही दिन शेष बचे हैं। 15 जनवरी से ऑस्ट्रेलियाई सरजर्मी पर खिताबी भिड़ंत शुरू हो जाएगी, लेकिन उससे पहले ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस बार टक्कर दमदार नहीं होगी। वजह टेनिस के शीर्ष खिलाड़ियों का चोटिल होने के कारण टूर्नामेंट से बाहर होना। मतलब इस वर्ष स्टार खिलाड़ियों की अनुपस्थिति की वजह से पहले ग्रैंड स्लैम की चमक फीकी रहने वाली है। टूर्नामेंट के दौरान टेनिस प्रेमी अपने चहेते को नहीं देख पाएंगे। 12 ग्रैंड स्लैम जीत चुके जोकोविच इस बार फिर खिताब अपने नाम करना चाहेंगे। हालांकि उनके खेलने पर संशय बना हुआ है। 
  ब्रिटेन के एंडी मरे और जापान के केई निशिकोरी जैसे स्टार खिलाड़ी इस बार ऑस्ट्रेलिया ओपन में अपना दमखम नहीं दिखाएंगे। वे चोट लगने दूसरी तरफ जुलाई में दायीं कोहनी में चोट के कारण विंबडलन क्वार्टर फाइनल से हटने के बाद से जोकोविच नहीं खेले हैं। इससे पहले वह अबु धाबी में प्रदर्शनी मैच और कतर ओपन से हट चुके हैं। वह अगले हफ्ते मेलबर्न में कूयोंग क्लासिक और फिर यहीं टाई ब्रेक टेंस टूर्नामेंट में खेलकर अपनी चोट को परखेंगे। 12 बार के ग्रैंड स्लैम चैंपियन जोकोविच ने कहा कि नोवाक ऑस्ट्रेलिया जा रहा है जहां वह दो प्रदर्शनी टूर्नामेंट में हिस्सा लेगा। उन्होंने कहा कि इन दो प्रतियोगिताओं के बाद सत्र के पहले ग्रैंड स्लैम में उसके खेलने पर फैसला किया जाएगा। वह छह बार ऑस्ट्रेलिया ओपन जीते चुके हैं।
 पांच बार ऑस्ट्रेलिय ओपन जीतने वाले एंडी मरे भी इस टूर्नामेंट अपना जौहर नहीं दिखा पाएंगे। दुनिया के पूर्व नंबर एक खिलाड़ी मरे को पिछले साल चोट लगी थी और विंबडलन क्वार्टर फाइनल में शिकस्त के बाद से वह एटीपी टूर पर नहीं खेल रहे। मरे ने कहा ने कहा कि दुखद है कि इस साल मैं मेलबर्न में नहीं खेलूंगा, क्योंकि मैं अब भी प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार नहीं हूं।
 इतना ही नहीं टूर्नामेंट में सर्बिया के नावाक जोकोविच के खेलने पर भी संशय है। एशिया के नंबर एक खिलाड़ी निशिकोरी सिनसिनाटी में अभ्यास मैच के दौरान चोट लगने के बाद पिछले साल अगस्त से एक भी प्रतिस्पर्धी मैच नहीं खेले हैं। उन्होंने कहा कि वह अब भी ग्रैंड स्लैम के कठिन मुकाबले के लिए तैयार नहीं हैं। मेलबर्न में 15 जनवरी से शुरू हो रहे साल के पहले ग्रैंड स्लैम के संबंध में निशिकोरी ने कहा कि मुझे यह घोषणा करते हुए दुख हो रहा है कि मैं इस साल ऑस्ट्रेलिया ओपन में नहीं खेल पाऊंगा।

Friday 23 December 2016

सभागाछीः गाछी है पर सभा नहीं



मधुबनी ज़िला मुख्यालय से महज़ छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है सौराठ गांव. यह गांव वैवाहिक सम्मेलन के कारण पूरे विश्व में प्रसिद्ध है. यह सम्मेलन सौराठ सभा के नाम से जाना जाता है. सौराठ सभा संभवत: विश्व में अपने ढंग का अनूठा वैवाहिक सम्मेलन है, जहां प्रति वर्ष मैथिल ब्राह्मण समुदाय के लड़के-लड़कियों की शादियां तय होती हैं, लेकिन अब यहां से शादी तय करना गुजरे जमाने की बात हो गई है. लोग यहां आना तक मुनासिब नहीं समझते, जिसके चलते इस ऐतिहासिक परंपरा का अस्तित्व खत्म होता जा रहा है. अगर समय रहते लोगों ने इस पर सोचना शुरू नहीं किया तो यह ऐतिहासिक परंपरा इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह जाएगी.
वरों का यह अनूठा मेला अब अपनी चमक खोता जा रहा है. एक समय था, जब शादी करने और कराने वालों की यहां भीड़ लगी रहती थी. कहा तो यहां तक जाता है कि मेले में लोगों को पैर रखने के लिए जगह तक नहीं मिलती थी. लाखों की संख्या में लोग आते थे, लेकिन अब मुश्किल से एकाध हज़ार लोग ही मेले में पहुंचते हैं. यही वजह है कि ऐतिहासिक सभागाछी खत्म होने की कगार पर पहुंच गई है.
कई सदियों से ज्येष्ठ-आषाढ़ के महीने में यहां एक विशेष प्रकार के मेले का आयोजन किया जाता रहा है. इसे मेला नहीं, बल्कि सौराठ सभा या सभागाछी के नाम से जाना जाता है. सभा का आयोजन 22 बीघा ज़मीन पर खुले आसमान के नीचे होता है. यह ज़मीन दरभंगा महाराज ने दान में दी थी. लोग यहां विवाह योग्य लड़के-लड़कियों की तलाश में इकट्ठा होते हैं और यहीं से शादी तय होती है. वर अपने संबंधी या अभिभावक के साथ यहां आते हैं. वधू पक्ष के लोग उनसे पूछताछ करते हैं और उसके बाद शादी तय होती है. इस तरह के आयोजन का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि कन्यागत (वधू पक्ष) को यहां-वहां भटकने की ज़रूरत नहीं पड़ती. उन्हें एक ही स्थान पर बहुत सारे लड़के मिल जाते हैं और वे किसी सुयोग्य वर से अपनी बेटी की शादी करा देते हैं.
सौराठ में शादियां कराने वाले पंजीकार विश्वमोहन चंद्र बताते हैं कि 700 साल पहले क़रीब 1310 ईस्वी में इस प्रथा की शुरुआत हुई थी. लिखित रूप में पंजी प्रथा की शुरुआत मिथिला नरेश हरिसिंह देव ने की थी. हालांकि इससे पूर्व उनके पूर्वज नान्यदेव इसकी नींव डाल चुके थे, मगर उस वक्त पंजी लिपिबद्ध नहीं होती थी. पंजी प्रथा का मुख्य उद्देश्य विवाह संबंध अच्छे कुल में होना है. इस प्रथा के अनुसार, कम से कम मातृकुल के पांच एवं पितृकुल के सात पुरखों के मध्य रक्त संबंध होने पर उस पीढ़ी के मध्य वैवाहिक संबंध वर्जित है. वैज्ञानिक कारण भी यही है, क्योंकि एक ही ब्लडग्रुप में शादी करने की सलाह डॉक्टर भी नहीं देते. शायद यही वजह है कि ब्राह्मण एक ही गोत्र एवं मूल में शादी नहीं करते. उनका मानना है कि अलग गोत्र में विवाह करने से संतान उत्तम होती है. शादी कराने में पंजीकारों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है.
पंजीकार ही शादियों की फिक्सिंग कराते हैं. मेले में सिद्धांत लिखवाने का भी काम होता है. मतलब यह कि वर और वधू पक्ष का वंशगत लेखाजोखा पंजीकार ही रखते हैं. यहीं से उन्हें उनके पुरखों की सारी जानकारी मिल जाती है. पुरखों का यह सिद्धांत क़ानूनी रूप से किसी भी शादी को स्वीकृति प्रदान करता है और अदालत में भी इसे मान्यता प्राप्त है.
क़रीब दो दशक पहले यहां शादी करने और कराने वालों की अच्छी-खासी भीड़ होती थी, लेकिन विडंबना यह है कि अब धीरे-धीरे यहां आने वाले लोगों की संख्या साल दर साल घटती जा रही है. सवाल यह उठता है कि इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार कौन है? हालांकि किसी एक को ज़िम्मेदार ठहराना सरासर ग़लत होगा. इसके लिए नेता, प्रशासन और वहां के लोग समान रूप से ज़िम्मेदार हैं. सभागाछी की इस स्थिति के लिए युवा पीढ़ी भी कम ज़िम्मेदार नहीं है, जो इस तरह के आयोजन में जाने से कतराती है. वह सोचती है कि वहां जाने से उसकी इज़्ज़त कम हो जाएगी. अब वहां जाना वे अपनी शान के खिला़फ समझते हैं.
विश्वमोहन चंद्र ने बताया कि 1971 में इस आयोजन में क़रीब डे़ढ लाख लोग आए थे, लेकिन धीरे-धीरे यहां आने वालों की संख्या कम होती गई. 1991 में लगभग पचास हज़ार लोग आए थे और इस वर्ष महज़ दस हज़ार लोग ही इस मौके पर पहुंचे. उक्त आंकड़े मेले की स्थिति बताने के लिए काफी हैं. मेला आयोजक चुनचुन मिश्र का कहना है कि इस स्थिति के लिए सरकार ज़िम्मेदार है, सभा को अब पहले जैसी सुविधाएं नहीं मिल रही हैं, जैसे यातायात, पानी और बिजली आदि की व्यवस्था नहीं की जाती. इसके अलावा भी कई कारण हैं, जिनसे सभागाछी का अस्तित्व खत्म होने की कगार पर हैं. इस इलाक़े में जितने भी सुखी संपन्न परिवार हैं, वे यहां नहीं आते. इसलिए एक हद तक यहां के लोग भी ज़िम्मेदार हैं. वे अपनी संस्कृति को नहीं बचाना चाहते. दहेज की समस्या ने भी इसे प्रभावित किया है. पहले यहां स्थिति यह थी कि कोई भी वर दहेज नहीं मांगता था, लेकिन अब यहां दहेज मुंह खोलकर मांगा जाता है. मेले में वर की तलाश में पहुंचे राम चौधरी ने कहा, मैं अपनी बेटी की शादी के लिए लड़का खोज रहा था, लेकिन सभी ने काफी अधिक दहेज मांगा. यहां यह सोचकर आया कि अच्छा लड़का मिल जाएगा, लेकिन एक भी ढंग का लड़का नहीं मिला. जो अच्छे लड़के आए थे, वे खुलकर दहेज मांग रहे थे. पहले सौराठ में विवाह होना सम्मान की बात मानी जाती थी, लेकिन अब यह कहा जाता है कि जिनका विवाह कहीं नहीं होता है, वही वर शादी करने के लिए यहां आते हैं

Thursday 29 July 2010

खतरे में गंगा की डॉल्फिन



गंगा की डॉल्फिन खतरे में है. सरकार ने इसे राष्ट्रीय जल जीव घोषित कर लोगों में जागरूकता बढ़ाने की कोशिश की है. भारत सरकार इसकी रक्षा के लिए समर्थन जुटाना चाहती है. सरकार का मानना है कि इस कदम से युवा पीढ़ी में डॉल्फिन के संरक्षण और उन्हें बचाए रखने की भावना जागेगी, मगर असलियत यह है कि जिन लोगों पर इसे बचाने और इसके संरक्षण की जिम्मेदारी है, वही अपने कर्तव्यों का निर्वहन ठीक से नहीं कर रहे हैं.
भागलपुर के पास बना विक्रमशिला गंगा डॉल्फिन अभ्यारण्य सुल्तान गंज से कहलगांव तक 50 किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है. यह एशिया का एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जहां गंगा की विलुप्त हो रही डॉल्फिनों को संरक्षित और बचाने की पहल की गई है. यह अभ्यारण्य वर्ल्ड वाइड फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) सहित कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और भारतीय संगठनों का मिलाजुला प्रयास है. सरकारी दस्तावेजों में गंगा डॉल्फिन को बचाने की मुहिम तेज कर दी गई है, लेकिन डॉल्फिनों का शिकार बंद नहीं हो रहा है. हाल ही में बिहार में गंगा नदी के किनारे चार डॉल्फिनें मरी पाई गईं. शिकारियों ने इन्हें पहले जाल में फंसाया, फिर इन्हें तब तक पीटा, जब तक इनकी मौत नहीं हो गई. अवैध शिकार की वजह से भारत में इन डॉल्फिनों की संख्या सिर्फ 2000 रह गई है.
डॉल्फिन की एक प्रजाति गंगा नदी में रहती है, जिसे आमभाषा में सोंस कहा जाता है. गंगा नदी के किनारे रहने वाले भी इसके सही रूप को देख नहीं पाते, क्योंकि यह सिर्फ सांस लेने के लिए पानी से ऊपर आती है और तुरंत गायब हो जाती है. स्वभाव से यह काफी शर्मीली होती है. इंसानों को देखते ही दूर चली जाती है. सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि गंगा की डॉल्फिन देख नहीं सकती. यह अंधी होती है. अंधी होने के बाबजूद यह अच्छी तैराक भी होती है और गहरे पानी में रहना पसंद करती है. यह शिकार को पकड़ने और देखने के लिए ध्वनि तरंगों का उपयोग करती है. इसकी लंबाई 5 से 8 फीट के करीब होती है और इसका वजन 90 किलोग्राम के आसपास होता है. गंगैटिक डॉल्फिन मछलियों, मेंढकों और कछुओं की विभिन्न प्रजातियों के साथ ही अन्य जलीय जंतुओं को खाती है. हालांकि मछली इसकी मुख्य भोजन है. यह भोजन की तलाश में अक्सर नदी के किनारे अपना समय बिताती है.
इसे गंगैटिक डॉल्फिन इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इस प्रजाति की डॉल्फिन को सबसे पहले गंगा में देखा गया. इसका साइंटिफिक नाम पलतानिस्ता गंगैटिक है. इस डॉल्फिन को साउथ एशिया की कई नदियों में देखा जा सकता है. गंगा के अलावा यह डॉल्फिन ब्रह्मपुत्र, मेघना, कर्णफुली और संगू आदि नदियों में भी पाई जाती है. गंगा डॉल्फिन उन चार डॉल्फिनों में से है, जो सिर्फ मीठे पानी यानी नदियों और तालाबों में पाई जाती हैं. चीन में यांग्त्से नदी में बायजी डॉल्फिन, पाकिस्तान की सिंधु नदी में भुलन डॉल्फिन और दक्षिण अमेरिका की अमेजन नदी में बोटो डॉल्फिन पाई जाती हैं, जो खत्म होने की कगार पर हैं. भारत में 1972 के वन संरक्षण कानून में ही इन डॉल्फिनों को लुप्त होने वाले जीवों में शामिल किया गया. भारतीय उपमहाद्वीप में सिर्फ 2000 गंगा डॉल्फिन बची हैं.
मीठे पानी की डॉल्फिन कई कारणों से खतरे में है. गंगा की डॉल्फिनों को सबसे ज्यादा खतरा बेरोकटोक चल रहे शिकार से है. पैसे के लालच में मछुआरे इसका शिकार करते हैं. यह अंधी होती है, इसलिए मछुआरों के जालों में फंस जाती है. मछुआरे अगर चाहें तो इन्हें जाल से निकाल कर वापस नदी में छोड़ सकते हैं, लेकिन वे ऐसा नहीं करते. वे इसे मार कर बाजार में बेच देते हैं. नीम-हकीम डॉल्फिनों की चर्बी से निकाले गए तेल से इलाज करते हैं. इसके तेल को लकवा, गीठा जैसी बीमारियों के लिए अचूक माना जाता है. इसका तेल काफी महंगा होता है. यही वजह है कि गंगा की डॉल्फिनों का शिकार किया जाता है. गंगा की डॉल्फिनों को दूसरा खतरा गंगा में चलने वाली नावों और जहाजों से होता है. जिन इलाकों में यह रहती है, वहां आज भी यातायात के लिए नावों का इस्तेमाल होता है. यह देख नहीं सकती, इसलिए नावों से टकरा जाती है या फिर मल्लाहों के चप्पुओं का शिकार हो जाती है. डॉल्फिनों की घटती संख्या का तीसरा कारण गंगा नदी का प्रदूषण है. यह साफ और मीठे पानी में रहने वाली जीव है, लेकिन जिस तरह से गंगा नदी में प्रदूषण बढ़ रहा है, उसमें इन डॉल्फिनों का जीना मुश्किल हो गया है. साथ ही नदी के किनारे बैराज बनने के कारण भी गंगैटिक डॉल्फिन की संख्या कम होती जा रही है. नदियों पर बांध बनाने की वजह से यह एक-दूसरे से अलग हो जाती हैं, जिससे प्रजनन नहीं हो पाता. यही वजह है कि इसकी संख्या दिनोंदिन कम होती जा रही है.
गंगा की डॉल्फिन लुप्त होने की कगार पर है. सरकार द्वारा इसे सिर्फ भारत का जल जीव घोषित कर देने से स्थिति में कोई बदलाव नहीं आने वाला. जरूरत इस बात की है कि मछुआरों और स्थानीय लोगों को गंगा की डॉल्फिनों के बारे में जागरूक किया जाए. सोचने वाली बात यह है कि अब तक ऐसा एक भी मामला सामने नहीं आया है, जिसमें डॉल्फिनों के हत्यारों को सजा मिली हो. जिन अधिकारियों को इसे बचाने का काम सौंपा गया हैं, उनकी जिम्मेदारी भी तय होनी चाहिए. मासूम डॉल्फिनें तो अंधीं हैं, लेकिन आंखों वाले अधिकारियों ने इन्हें मरने के लिए छोड़ दिया है. अगर यह सिलसिला नहीं रुका तो यह शर्मीली डॉल्फिन सिर्फ किताबों में सिमट कर रह जाएगी.

Tuesday 9 February 2010

दिल्ली मेट्रो: असुविधा के लिए खेद है

दिल्ली मेट्रो अपने सुहाने सफर में विस्तार करते हुए दिल्ली की देहरी लांघ कर नोएडा पहुंच गई. यह दिल्लीवासियों के साथ-साथ नोएडा में रह रहे लोगों के लिए काफी सुखद है. हालांकि नोएडा के लोगों को इसके लिए तीन साल का लंबा इंतजार करना पड़ा. नोएडा आई मेट्रो से लोगों को काफी उम्मीदें हैं. उम्मीदें इस बात की कि उसे जाम की समस्या से तो निजात मिलेगी ही, साथ ही उच्च स्तर की सुविधा भी मिलेगी, लेकिन सुविधा तो दूर की बात है, लोग समय से अपने कार्यालय भी नहीं पहुंच पाते हैं. आलम यह है कि लोगों को सुविधा के बजाय असुविधा से दो-चार होना पड़ रहा है. लोग शायद घर से यही सोचकर चलते हैं कि ऑफिस समय से पहले पहुंचना है. पर मेट्रो में हुई असुविधा से लोग कभी भी ऑफिस सही समय पर नहीं पहुंच पाते हैं, जिसके चलते ऑफिस में उन्हें बॉस की डांट खानी पड़ती है. ऐसा ही कुछ कहना है एमएनसी में काम करने वाली स्मृति का. उन्होंने कहा कि वह रोज एक घंटा पहले घर से ऑफिस के लिए निकलती है, लेकिन रा़ेजाना कार्यालय पहुंचने में उसे देर हो जाती है. जिसमें उसकी कोई गलती नहीं है. फिर भी उसे ही डांट खानी पड़ती है. मुंबई की तर्ज पर दिल्ली की लाइफ लाइन बनने वाली मेट्रो की हवा निकलती जा रही है. हालांकि एक तरफ तो धीरे-धीरे इसका विस्तार हो रहा. यह एक राज्य से दूसरे राज्य में पहुंच रही है, लेकिन वहीं दूसरी तरफ विस्तार के बावजूद यात्री उसकी सुविधा से हैरान-परेशान हैं. आलम यह है कि रोज़ाना लाखों लोग इससे सफर करते हैं, लेकिन मेट्रो की लेटलतीफी और तकनीकि खराबी की वजह से लोगों को द़िक्क़त का सामना करना पड़ता है. मेट्रो मैन कह जाने वाले श्रीधरन साहब ने तो दिल्ली में मेट्रो का जाल बिछा दिया. लोगों को उस तरह की सुविधा मुहैया कराई, जो दिल्लीवासियों के लिए किसी गर्व से कम नहीं है. इस सुविधा से कमोबेश हर कोई खुश भी है, लेकिन एक बात ऐसी भी है, जिससे ज़्यादातर लोग नाखुश हैं. इस नाखुशी का कारण मेट्रो परिचालन और ट्रेन की फ्रीक्वेंसी कम होना है. अगर बात द्वारका से नोएडा की ओर जाने वाली मेट्रो ट्रेन की करें तो स्थिति बहुत ही ़खराब है. पिक ऑवर में तो इतनी भीड़ रहती है कि कुछ पूछिए मत. उस वक्त हाल बिल्कुल मुंबई लोकल ट्रेन की तरह हो जाता है. मतलब यह कि ट्रेन में च़ढते वक्त आपको स़िर्फ लाइन में खड़ा होना पड़ेगा. बाकी का काम तो लाइन में खड़े पीछे वाले कर देते हैं. स्थिति ये हो जाती है कि ट्रेन आई नहीं कि धक्का-मुक्की शुरू हो जाती है. ये तो हुई मुंबई की बातें. कुल मिलाकर दिल्ली मेट्रो के हालात भी कुछ इसी तरह के हैं. राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर आपको लंबी-लंबी लाइन देखने को मिल जाएगी. इतनी लंबी लाइन लगी रहती है कि भीड़ के कारण लोग यह जानते हुए भी कि दूसरी ट्रेन पन्द्रह मिनट बाद है, छोड़ देते हैं. फिर भी बात यहीं खत्म नहीं होती है. इस भीड़ में सबसे ज़्यादा द़िक्क़त महिलाओं और लड़कियों को होती है. सबसे पहले उन्हें ट्रेन में च़ढते समय द़िक्क़त होती है. क्योंकि दिल्ली मेट्रो की व्यवस्था मुंबई लोकल की तर्ज पर नहीं की गई है. दिल्ली मेट्रो में कोई ऐसी बोगी या कंपार्टमेंट में नहीं है, जिसमें स़िर्फ महिलाएं ही च़ढ सकें, जिसके चलते उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ता है. इतना ही नहीं अगर भीड़ के बावजूद वह ट्रेन में च़ढने में सफल हो जाती हैं, तो अंदर इतनी भीड़ होती है कि कुछ असामाजिक तत्व उन्हें परेशान करने से भी गुरेज नहीं करते. इसके बाद शुरू होता धक्का-मुक्की का दौर. अगर बात ब़ढ भी गई तो सॉरी मांग कर वे अपना पल्ला झाड़ लेते हैं. कभी-कभी तो इस तरह की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, भीड़ से खचाखच भरी ट्रेन में तड़ाक की आवाज सुनाई देती है. बाद में पता चलता है कि किसी ने बदतमिजी की है. एक बार की बात बता रहूं, मैं अपने सहयोगी के साथ कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन से बाहर निकल रहा था. ठीक उसी वक्त एक मोहतरमा ने एक सज्जन को तड़ा-तड़ दो-तीन झापड़ उसके गाल पर रसीद दिए. वह सज्जन मोहतरमा द्वारा किए गए इस वार से हक्का-बक्का हो गए. हालांकि उस सज्जन व्यक्ति को देखने से उसके चहरे से शराफत झलकती थी, लेकिन उसकी सारी शराफत उस मैडम ने एक मिनट में तार-तार कर दी. ये हुई धक्का-मुक्की की बात. अब सुनाता हूं मेट्रो की छूक-छूक की कहानी. द्वारका-नोएड पर सफर करने वाले ज़्यादातर यात्रियों की शिकायत है कि मेट्रो चलते-चलते अचानक डीटीसी बस का रूप धर लेती है. मतलब अचानक से ब्रेक लग जाती. फिर अचानक से खुल जाती है. जिससे लोग हिचकोले खाते हैं, इस हिचकोले के चक्कर में कई लोग आपस में उलझ जाते हैं. कभी-कभी तो नौबत हाथापाई तक आ जाती है. अगर एक बार हिचकोले का दौर शुरू हुआ तो खत्म होने का नाम ही नहीं लेता. यह प्रक्रिया करीब आधे घंटे तक लगातार जारी रहती है. खैर इन बातों को दरकिनार कर दिया जाए तो डीएमआरसी वाले चिल्ला-चिल्ला कर आपनी सुविधा का बखान करते नहीं थकते हैं, लेकिन हक़ीक़त ठीक इसके उलट है. दिल्ली मेट्रो में तकनीकी खामियां भी थमने का नाम नहीं ले रही है. खासतौर पर द्वारका-नोएडा सेक्शन पर कभी सिग्नल तो कभी ट्रैक में द़िक्क़त जैसी तकनीकी समस्याएं सामने आ रही हैं, जिससे ठीक करने में मेट्रो इंजीनियरों को घंटों का समय लग जाता है और इसका खामियाजा यात्रियों को भुगतना पड़ता है. इससे हज़ारों यात्रियों को ऑफिस और व्यापार मेला पहुंचने में परेशानी होती है. कभी-कभी तो स्टेशन पर ही यात्री जमकर हंगामा करना शुरू कर देते हैं. उसके बाद मेट्रो ड्राइवर को यात्रियों को समझाना बुझाना पड़ता है.

पत्नी से डरते हैं तो फोटो ले सकते हैं

इस तस्वीर को गौर से देखिए। आपको क्या दिख रहा है? बहुत सारे कपड़े दिख रहे हैं न । वो भी बच्चों के कपड़े हैं। अरे! नहीं जनाब। जो मैं आपको ...