Thursday 29 July 2010

खतरे में गंगा की डॉल्फिन



गंगा की डॉल्फिन खतरे में है. सरकार ने इसे राष्ट्रीय जल जीव घोषित कर लोगों में जागरूकता बढ़ाने की कोशिश की है. भारत सरकार इसकी रक्षा के लिए समर्थन जुटाना चाहती है. सरकार का मानना है कि इस कदम से युवा पीढ़ी में डॉल्फिन के संरक्षण और उन्हें बचाए रखने की भावना जागेगी, मगर असलियत यह है कि जिन लोगों पर इसे बचाने और इसके संरक्षण की जिम्मेदारी है, वही अपने कर्तव्यों का निर्वहन ठीक से नहीं कर रहे हैं.
भागलपुर के पास बना विक्रमशिला गंगा डॉल्फिन अभ्यारण्य सुल्तान गंज से कहलगांव तक 50 किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है. यह एशिया का एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जहां गंगा की विलुप्त हो रही डॉल्फिनों को संरक्षित और बचाने की पहल की गई है. यह अभ्यारण्य वर्ल्ड वाइड फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) सहित कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और भारतीय संगठनों का मिलाजुला प्रयास है. सरकारी दस्तावेजों में गंगा डॉल्फिन को बचाने की मुहिम तेज कर दी गई है, लेकिन डॉल्फिनों का शिकार बंद नहीं हो रहा है. हाल ही में बिहार में गंगा नदी के किनारे चार डॉल्फिनें मरी पाई गईं. शिकारियों ने इन्हें पहले जाल में फंसाया, फिर इन्हें तब तक पीटा, जब तक इनकी मौत नहीं हो गई. अवैध शिकार की वजह से भारत में इन डॉल्फिनों की संख्या सिर्फ 2000 रह गई है.
डॉल्फिन की एक प्रजाति गंगा नदी में रहती है, जिसे आमभाषा में सोंस कहा जाता है. गंगा नदी के किनारे रहने वाले भी इसके सही रूप को देख नहीं पाते, क्योंकि यह सिर्फ सांस लेने के लिए पानी से ऊपर आती है और तुरंत गायब हो जाती है. स्वभाव से यह काफी शर्मीली होती है. इंसानों को देखते ही दूर चली जाती है. सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि गंगा की डॉल्फिन देख नहीं सकती. यह अंधी होती है. अंधी होने के बाबजूद यह अच्छी तैराक भी होती है और गहरे पानी में रहना पसंद करती है. यह शिकार को पकड़ने और देखने के लिए ध्वनि तरंगों का उपयोग करती है. इसकी लंबाई 5 से 8 फीट के करीब होती है और इसका वजन 90 किलोग्राम के आसपास होता है. गंगैटिक डॉल्फिन मछलियों, मेंढकों और कछुओं की विभिन्न प्रजातियों के साथ ही अन्य जलीय जंतुओं को खाती है. हालांकि मछली इसकी मुख्य भोजन है. यह भोजन की तलाश में अक्सर नदी के किनारे अपना समय बिताती है.
इसे गंगैटिक डॉल्फिन इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इस प्रजाति की डॉल्फिन को सबसे पहले गंगा में देखा गया. इसका साइंटिफिक नाम पलतानिस्ता गंगैटिक है. इस डॉल्फिन को साउथ एशिया की कई नदियों में देखा जा सकता है. गंगा के अलावा यह डॉल्फिन ब्रह्मपुत्र, मेघना, कर्णफुली और संगू आदि नदियों में भी पाई जाती है. गंगा डॉल्फिन उन चार डॉल्फिनों में से है, जो सिर्फ मीठे पानी यानी नदियों और तालाबों में पाई जाती हैं. चीन में यांग्त्से नदी में बायजी डॉल्फिन, पाकिस्तान की सिंधु नदी में भुलन डॉल्फिन और दक्षिण अमेरिका की अमेजन नदी में बोटो डॉल्फिन पाई जाती हैं, जो खत्म होने की कगार पर हैं. भारत में 1972 के वन संरक्षण कानून में ही इन डॉल्फिनों को लुप्त होने वाले जीवों में शामिल किया गया. भारतीय उपमहाद्वीप में सिर्फ 2000 गंगा डॉल्फिन बची हैं.
मीठे पानी की डॉल्फिन कई कारणों से खतरे में है. गंगा की डॉल्फिनों को सबसे ज्यादा खतरा बेरोकटोक चल रहे शिकार से है. पैसे के लालच में मछुआरे इसका शिकार करते हैं. यह अंधी होती है, इसलिए मछुआरों के जालों में फंस जाती है. मछुआरे अगर चाहें तो इन्हें जाल से निकाल कर वापस नदी में छोड़ सकते हैं, लेकिन वे ऐसा नहीं करते. वे इसे मार कर बाजार में बेच देते हैं. नीम-हकीम डॉल्फिनों की चर्बी से निकाले गए तेल से इलाज करते हैं. इसके तेल को लकवा, गीठा जैसी बीमारियों के लिए अचूक माना जाता है. इसका तेल काफी महंगा होता है. यही वजह है कि गंगा की डॉल्फिनों का शिकार किया जाता है. गंगा की डॉल्फिनों को दूसरा खतरा गंगा में चलने वाली नावों और जहाजों से होता है. जिन इलाकों में यह रहती है, वहां आज भी यातायात के लिए नावों का इस्तेमाल होता है. यह देख नहीं सकती, इसलिए नावों से टकरा जाती है या फिर मल्लाहों के चप्पुओं का शिकार हो जाती है. डॉल्फिनों की घटती संख्या का तीसरा कारण गंगा नदी का प्रदूषण है. यह साफ और मीठे पानी में रहने वाली जीव है, लेकिन जिस तरह से गंगा नदी में प्रदूषण बढ़ रहा है, उसमें इन डॉल्फिनों का जीना मुश्किल हो गया है. साथ ही नदी के किनारे बैराज बनने के कारण भी गंगैटिक डॉल्फिन की संख्या कम होती जा रही है. नदियों पर बांध बनाने की वजह से यह एक-दूसरे से अलग हो जाती हैं, जिससे प्रजनन नहीं हो पाता. यही वजह है कि इसकी संख्या दिनोंदिन कम होती जा रही है.
गंगा की डॉल्फिन लुप्त होने की कगार पर है. सरकार द्वारा इसे सिर्फ भारत का जल जीव घोषित कर देने से स्थिति में कोई बदलाव नहीं आने वाला. जरूरत इस बात की है कि मछुआरों और स्थानीय लोगों को गंगा की डॉल्फिनों के बारे में जागरूक किया जाए. सोचने वाली बात यह है कि अब तक ऐसा एक भी मामला सामने नहीं आया है, जिसमें डॉल्फिनों के हत्यारों को सजा मिली हो. जिन अधिकारियों को इसे बचाने का काम सौंपा गया हैं, उनकी जिम्मेदारी भी तय होनी चाहिए. मासूम डॉल्फिनें तो अंधीं हैं, लेकिन आंखों वाले अधिकारियों ने इन्हें मरने के लिए छोड़ दिया है. अगर यह सिलसिला नहीं रुका तो यह शर्मीली डॉल्फिन सिर्फ किताबों में सिमट कर रह जाएगी.

Tuesday 9 February 2010

दिल्ली मेट्रो: असुविधा के लिए खेद है

दिल्ली मेट्रो अपने सुहाने सफर में विस्तार करते हुए दिल्ली की देहरी लांघ कर नोएडा पहुंच गई. यह दिल्लीवासियों के साथ-साथ नोएडा में रह रहे लोगों के लिए काफी सुखद है. हालांकि नोएडा के लोगों को इसके लिए तीन साल का लंबा इंतजार करना पड़ा. नोएडा आई मेट्रो से लोगों को काफी उम्मीदें हैं. उम्मीदें इस बात की कि उसे जाम की समस्या से तो निजात मिलेगी ही, साथ ही उच्च स्तर की सुविधा भी मिलेगी, लेकिन सुविधा तो दूर की बात है, लोग समय से अपने कार्यालय भी नहीं पहुंच पाते हैं. आलम यह है कि लोगों को सुविधा के बजाय असुविधा से दो-चार होना पड़ रहा है. लोग शायद घर से यही सोचकर चलते हैं कि ऑफिस समय से पहले पहुंचना है. पर मेट्रो में हुई असुविधा से लोग कभी भी ऑफिस सही समय पर नहीं पहुंच पाते हैं, जिसके चलते ऑफिस में उन्हें बॉस की डांट खानी पड़ती है. ऐसा ही कुछ कहना है एमएनसी में काम करने वाली स्मृति का. उन्होंने कहा कि वह रोज एक घंटा पहले घर से ऑफिस के लिए निकलती है, लेकिन रा़ेजाना कार्यालय पहुंचने में उसे देर हो जाती है. जिसमें उसकी कोई गलती नहीं है. फिर भी उसे ही डांट खानी पड़ती है. मुंबई की तर्ज पर दिल्ली की लाइफ लाइन बनने वाली मेट्रो की हवा निकलती जा रही है. हालांकि एक तरफ तो धीरे-धीरे इसका विस्तार हो रहा. यह एक राज्य से दूसरे राज्य में पहुंच रही है, लेकिन वहीं दूसरी तरफ विस्तार के बावजूद यात्री उसकी सुविधा से हैरान-परेशान हैं. आलम यह है कि रोज़ाना लाखों लोग इससे सफर करते हैं, लेकिन मेट्रो की लेटलतीफी और तकनीकि खराबी की वजह से लोगों को द़िक्क़त का सामना करना पड़ता है. मेट्रो मैन कह जाने वाले श्रीधरन साहब ने तो दिल्ली में मेट्रो का जाल बिछा दिया. लोगों को उस तरह की सुविधा मुहैया कराई, जो दिल्लीवासियों के लिए किसी गर्व से कम नहीं है. इस सुविधा से कमोबेश हर कोई खुश भी है, लेकिन एक बात ऐसी भी है, जिससे ज़्यादातर लोग नाखुश हैं. इस नाखुशी का कारण मेट्रो परिचालन और ट्रेन की फ्रीक्वेंसी कम होना है. अगर बात द्वारका से नोएडा की ओर जाने वाली मेट्रो ट्रेन की करें तो स्थिति बहुत ही ़खराब है. पिक ऑवर में तो इतनी भीड़ रहती है कि कुछ पूछिए मत. उस वक्त हाल बिल्कुल मुंबई लोकल ट्रेन की तरह हो जाता है. मतलब यह कि ट्रेन में च़ढते वक्त आपको स़िर्फ लाइन में खड़ा होना पड़ेगा. बाकी का काम तो लाइन में खड़े पीछे वाले कर देते हैं. स्थिति ये हो जाती है कि ट्रेन आई नहीं कि धक्का-मुक्की शुरू हो जाती है. ये तो हुई मुंबई की बातें. कुल मिलाकर दिल्ली मेट्रो के हालात भी कुछ इसी तरह के हैं. राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर आपको लंबी-लंबी लाइन देखने को मिल जाएगी. इतनी लंबी लाइन लगी रहती है कि भीड़ के कारण लोग यह जानते हुए भी कि दूसरी ट्रेन पन्द्रह मिनट बाद है, छोड़ देते हैं. फिर भी बात यहीं खत्म नहीं होती है. इस भीड़ में सबसे ज़्यादा द़िक्क़त महिलाओं और लड़कियों को होती है. सबसे पहले उन्हें ट्रेन में च़ढते समय द़िक्क़त होती है. क्योंकि दिल्ली मेट्रो की व्यवस्था मुंबई लोकल की तर्ज पर नहीं की गई है. दिल्ली मेट्रो में कोई ऐसी बोगी या कंपार्टमेंट में नहीं है, जिसमें स़िर्फ महिलाएं ही च़ढ सकें, जिसके चलते उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ता है. इतना ही नहीं अगर भीड़ के बावजूद वह ट्रेन में च़ढने में सफल हो जाती हैं, तो अंदर इतनी भीड़ होती है कि कुछ असामाजिक तत्व उन्हें परेशान करने से भी गुरेज नहीं करते. इसके बाद शुरू होता धक्का-मुक्की का दौर. अगर बात ब़ढ भी गई तो सॉरी मांग कर वे अपना पल्ला झाड़ लेते हैं. कभी-कभी तो इस तरह की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, भीड़ से खचाखच भरी ट्रेन में तड़ाक की आवाज सुनाई देती है. बाद में पता चलता है कि किसी ने बदतमिजी की है. एक बार की बात बता रहूं, मैं अपने सहयोगी के साथ कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन से बाहर निकल रहा था. ठीक उसी वक्त एक मोहतरमा ने एक सज्जन को तड़ा-तड़ दो-तीन झापड़ उसके गाल पर रसीद दिए. वह सज्जन मोहतरमा द्वारा किए गए इस वार से हक्का-बक्का हो गए. हालांकि उस सज्जन व्यक्ति को देखने से उसके चहरे से शराफत झलकती थी, लेकिन उसकी सारी शराफत उस मैडम ने एक मिनट में तार-तार कर दी. ये हुई धक्का-मुक्की की बात. अब सुनाता हूं मेट्रो की छूक-छूक की कहानी. द्वारका-नोएड पर सफर करने वाले ज़्यादातर यात्रियों की शिकायत है कि मेट्रो चलते-चलते अचानक डीटीसी बस का रूप धर लेती है. मतलब अचानक से ब्रेक लग जाती. फिर अचानक से खुल जाती है. जिससे लोग हिचकोले खाते हैं, इस हिचकोले के चक्कर में कई लोग आपस में उलझ जाते हैं. कभी-कभी तो नौबत हाथापाई तक आ जाती है. अगर एक बार हिचकोले का दौर शुरू हुआ तो खत्म होने का नाम ही नहीं लेता. यह प्रक्रिया करीब आधे घंटे तक लगातार जारी रहती है. खैर इन बातों को दरकिनार कर दिया जाए तो डीएमआरसी वाले चिल्ला-चिल्ला कर आपनी सुविधा का बखान करते नहीं थकते हैं, लेकिन हक़ीक़त ठीक इसके उलट है. दिल्ली मेट्रो में तकनीकी खामियां भी थमने का नाम नहीं ले रही है. खासतौर पर द्वारका-नोएडा सेक्शन पर कभी सिग्नल तो कभी ट्रैक में द़िक्क़त जैसी तकनीकी समस्याएं सामने आ रही हैं, जिससे ठीक करने में मेट्रो इंजीनियरों को घंटों का समय लग जाता है और इसका खामियाजा यात्रियों को भुगतना पड़ता है. इससे हज़ारों यात्रियों को ऑफिस और व्यापार मेला पहुंचने में परेशानी होती है. कभी-कभी तो स्टेशन पर ही यात्री जमकर हंगामा करना शुरू कर देते हैं. उसके बाद मेट्रो ड्राइवर को यात्रियों को समझाना बुझाना पड़ता है.

पत्नी से डरते हैं तो फोटो ले सकते हैं

इस तस्वीर को गौर से देखिए। आपको क्या दिख रहा है? बहुत सारे कपड़े दिख रहे हैं न । वो भी बच्चों के कपड़े हैं। अरे! नहीं जनाब। जो मैं आपको ...